
चुनाव पूर्व दल-बदल जोरों पर, पर्टियों के अन्दरखाने मचा हडकम्प
– मुकेश बोहरा अमन
अवसरवादी राजनीति के मकड़जाल में भ्रमित आमजन, नेताओं की बल्ले-बल्ले
भारतीय राजनीति में दल-बदल अथवा अवसरवादिता कोई नई बात नही है । भारत की आजादी के कुछ वर्षाें बाद ही इस समस्या या चलन ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया था । भारतीय राजनति के 1960-70 के दशक में प्रथम बार हरियाणा के विधायक गया लाल ने 15 दिनों के भीतर 3 बार दल बदल दिया । और वे हरियाणा की हसनपुर सीट से निर्दलीय विधायक चुने गए । जीतने के तुरन्त बाद उन्होंनें कांग्रेस पार्टी का दामन थाम लिया । इसके पन्द्रह दिन के अंदर ही गया लाल ने 3 बार पार्टियां बदलीं। गया लाल पहले कांग्रेस से संयुक्त मोर्चे में गए, फिर वापस कांग्रेस में आए और उसी दिन फिर संयुक्त मोर्चे में चले गए। इस प्राकर दल-बदल अथवा अवसरवादिता का नया मुद्दा भारतीय राजनीति में आगे बढ़ने लगा ।
आजादी के तुरंत बाद के वक्त को देखे तो 1948 से ही इसका प्रभाव देखने को मिल जाता है । एक अनुमान के मुताबिक भारतीय रजानीति में अब तक बड़ी तादाद में सांसदों व विधायकों ने दल-बदल किया । इस अवसरवादिता का नतीजा यह रहता है कि कई बार जनता द्वारा चुनी हुई सरकारों को सत्ता से हाथ धोना पड़ता है । और जनता स्वयं को ठगी हुई महसूस करती है । फिर लाकतंत्र पर सवालिया निशान खड़ा होता है कि जनता द्वारा, जनता के लिए चुना हुआ प्रतिनिधि अपने स्वार्थ अथवा अवसरवादिता के चक्कर में लोकतंत्र की मूल भावना का गला घोंटता है । जहां जनता के साथ धोखा और विश्वासघात होता है वहीं नेताओं की बल्ले-बल्ले होती दिखाई देती है । नेताओं अलग-अलग तरह के लाभ व प्रलोभन प्राप्त होते है ।
राजनीति में दो प्रकार से दल-बदल होता दिखाई देता है । एक चुनाव पूर्व और दूसरा चुनाव बाद अर्थात् जीतने के बाद । प्रथम प्रकार में तो हर नेता अपने वर्तमान और भविष्य को देखते हुए आगे बढ़ता है । अपने लिए सुरक्षित पार्टी का दामन थाम लेता है । इसे हम अवसरवादिता कह सकते है । वहीं दूसरा तरीका -चुनाव जीतने के बाद दल-बदलना । इस पर भारतीय संविधान में दल-बदल विरोधी कानून 1985 बना चुका है । जिसके अधीन कोई भी विधायक अथवा सांसद तय मापदण्डों के बाहर दल-बदल नही कर सकता है । कानून का उल्लंघन कर दल-बदल करने पर सम्बन्धित की विधानसभा/संसद सदस्यता खत्म हो जाती है । दल-बदल विरोधी कानून संसद/विधान सभा सदस्यों को एक पार्टी से दूसरी पार्टी में शामिल होने पर दंडित करता है। संसद ने इसे 52वें संशोधन अधिनियम, 1985 के माध्यम से दसवीं अनुसूची के रूप में संविधान में जोड़ा। इसका उद्देश्य दल बदलने वाले सांसदों अथवा विधायकों को हतोत्साहित कर सरकारों में स्थिरता लाना तथा आमजन में लोकतंत्र के प्रति विश्वास कायम करना था।
भारतीय राजनीति में अवसरवादिता अथवा मौका परस्ती सभी राजनीतिक दलों के गले की हड्डी बनी हुई है । वैसे इस बीमारी के लिए किसी एक दल को विशेष रूप से जिम्मेदार ठहराना कतई उचित नही है । मगर इसमें सभी दलों का थोड़ा बहुत योगदान अवश्य रहा है । क्योंकि आज के राजनीतिक वातावरण में कोई भी दल इससे पूरी तरह अछूता नजर नहीं आ रहा है। इसी का नतीजा हाल में हो रहे मुख्य रूप से उतरप्रदेश के महाचुनावों में स्पष्ट दिखाई दे रहा है । पिछले कुछ दिनों में यूपी में कई विधायकों सहित मंत्रियों ने अवसरवादिता को गले लगाया और अपनी पार्टियों बदल दी । इस घटनाक्रम के चलते तमाम राजनीतिक दलों के भीतरखाने हडकंप मचा हुआ है । सभी दलों की नजर एक-दूसरे दल की कमजोर कड़ियों पर लगी हुई है । प्रतिदिन दल-बदल को लेकर नई-नई खबरें प्रकाश में आ रही है ।
दल बदल का इतिहास उतना ही पुराना है, जितना समय हमें अंग्रेजों से आजादी मिले हो चुका है। स्वतंत्रता के बाद से राजनीतिक दल बदलने की आदत शुरू हो गई थी, जो अब तक जारी है। इससे बचने के लिए कानून भी बनें लेकिन नतीजा उम्मीदों के अनुरूप नही रहा । आज तमाम राजनीतिक दलों को आत्ममंथन करने की जरूरत है । आमजनता के साथ हो रहा छल लोकतंत्र के लिए बेहद ही घातक है । इस ओर चुनाव आयोग सहित तमाम संस्थाओं व जिम्मेदार लोगों के साथ-साथ आ
भारतीय राजनीति में दल-बदल अथवा अवसरवादिता कोई नई बात नही है । भारत की आजादी के कुछ वर्षाें बाद ही इस समस्या या चलन ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया था । भारतीय राजनति के 1960-70 के दशक में प्रथम बार हरियाणा के विधायक गया लाल ने 15 दिनों के भीतर 3 बार दल बदल दिया । और वे हरियाणा की हसनपुर सीट से निर्दलीय विधायक चुने गए । जीतने के तुरन्त बाद उन्होंनें कांग्रेस पार्टी का दामन थाम लिया । इसके पन्द्रह दिन के अंदर ही गया लाल ने 3 बार पार्टियां बदलीं। गया लाल पहले कांग्रेस से संयुक्त मोर्चे में गए, फिर वापस कांग्रेस में आए और उसी दिन फिर संयुक्त मोर्चे में चले गए। इस प्राकर दल-बदल अथवा अवसरवादिता का नया मुद्दा भारतीय राजनीति में आगे बढ़ने लगा ।
आजादी के तुरंत बाद के वक्त को देखे तो 1948 से ही इसका प्रभाव देखने को मिल जाता है । एक अनुमान के मुताबिक भारतीय रजानीति में अब तक बड़ी तादाद में सांसदों व विधायकों ने दल-बदल किया । इस अवसरवादिता का नतीजा यह रहता है कि कई बार जनता द्वारा चुनी हुई सरकारों को सत्ता से हाथ धोना पड़ता है । और जनता स्वयं को ठगी हुई महसूस करती है । फिर लाकतंत्र पर सवालिया निशान खड़ा होता है कि जनता द्वारा, जनता के लिए चुना हुआ प्रतिनिधि अपने स्वार्थ अथवा अवसरवादिता के चक्कर में लोकतंत्र की मूल भावना का गला घोंटता है । जहां जनता के साथ धोखा और विश्वासघात होता है वहीं नेताओं की बल्ले-बल्ले होती दिखाई देती है । नेताओं अलग-अलग तरह के लाभ व प्रलोभन प्राप्त होते है ।
राजनीति में दो प्रकार से दल-बदल होता दिखाई देता है । एक चुनाव पूर्व और दूसरा चुनाव बाद अर्थात् जीतने के बाद । प्रथम प्रकार में तो हर नेता अपने वर्तमान और भविष्य को देखते हुए आगे बढ़ता है । अपने लिए सुरक्षित पार्टी का दामन थाम लेता है । इसे हम अवसरवादिता कह सकते है । वहीं दूसरा तरीका -चुनाव जीतने के बाद दल-बदलना । इस पर भारतीय संविधान में दल-बदल विरोधी कानून 1985 बना चुका है । जिसके अधीन कोई भी विधायक अथवा सांसद तय मापदण्डों के बाहर दल-बदल नही कर सकता है । कानून का उल्लंघन कर दल-बदल करने पर सम्बन्धित की विधानसभा/संसद सदस्यता खत्म हो जाती है । दल-बदल विरोधी कानून संसद/विधान सभा सदस्यों को एक पार्टी से दूसरी पार्टी में शामिल होने पर दंडित करता है। संसद ने इसे 52वें संशोधन अधिनियम, 1985 के माध्यम से दसवीं अनुसूची के रूप में संविधान में जोड़ा। इसका उद्देश्य दल बदलने वाले सांसदों अथवा विधायकों को हतोत्साहित कर सरकारों में स्थिरता लाना तथा आमजन में लोकतंत्र के प्रति विश्वास कायम करना था।
भारतीय राजनीति में अवसरवादिता अथवा मौका परस्ती सभी राजनीतिक दलों के गले की हड्डी बनी हुई है । वैसे इस बीमारी के लिए किसी एक दल को विशेष रूप से जिम्मेदार ठहराना कतई उचित नही है । मगर इसमें सभी दलों का थोड़ा बहुत योगदान अवश्य रहा है । क्योंकि आज के राजनीतिक वातावरण में कोई भी दल इससे पूरी तरह अछूता नजर नहीं आ रहा है। इसी का नतीजा हाल में हो रहे मुख्य रूप से उतरप्रदेश के महाचुनावों में स्पष्ट दिखाई दे रहा है । पिछले कुछ दिनों में यूपी में कई विधायकों सहित मंत्रियों ने अवसरवादिता को गले लगाया और अपनी पार्टियों बदल दी । इस घटनाक्रम के चलते तमाम राजनीतिक दलों के भीतरखाने हडकंप मचा हुआ है । सभी दलों की नजर एक-दूसरे दल की कमजोर कड़ियों पर लगी हुई है । प्रतिदिन दल-बदल को लेकर नई-नई खबरें प्रकाश में आ रही है ।
दल बदल का इतिहास उतना ही पुराना है, जितना समय हमें अंग्रेजों से आजादी मिले हो चुका है। स्वतंत्रता के बाद से राजनीतिक दल बदलने की आदत शुरू हो गई थी, जो अब तक जारी है। इससे बचने के लिए कानून भी बनें लेकिन नतीजा उम्मीदों के अनुरूप नही रहा । आज तमाम राजनीतिक दलों को आत्ममंथन करने की जरूरत है । आमजनता के साथ हो रहा छल लोकतंत्र के लिए बेहद ही घातक है । इस ओर चुनाव आयोग सहित तमाम संस्थाओं व जिम्मेदार लोगों के साथ-साथ आ