पूलिस  का लोमहर्षक चरित्र सर्वत्र है   पुलिस का ऐसा बर्बर, हिंसक , लोमहर्षक चरित्र सिर्फ यूपी ही नही बल्की पूरे देश मे सामने आ रहा है 

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पुलिस का यह चरित्र तो सर्वत्र है

 और पुलिस की इस बर्बर-लोमहर्षक चरित्र की सर्वत्र आलोचना हो रही है। सच्चाई यह है   पूलिसकर्मियों का ही नहीं है बल्कि

राष्ट्र-चिंतन

विष्णुगुप्त / गीता  चौहान 

 उत्तर  प्रदेश के लखनऊ में विवेक तिवारी हत्याकांड की गूंज पूरे देश में हुई है और पुलिस की इस बर्बर-लोमहर्षक चरित्र की सर्वत्र आलोचना हो रही है। सच्चाई यह है कि  पुलिस का ऐसा बर्बर, हिंसक , लोमहर्षक चरित्र सिर्फ लखनऊ  की पुलिस कर्मियों का ही नहीं है बल्कि ऐसा बर्बर, हिंसक , लोमहर्षक चरित्र सर्वत्र है। पूरे देश से सामने आ रहा है  चाहे बगाल हो ,चाहे यूपी हो किसी के माशूम को गोली मारते देर नही लगाती   षडयन्तर रच कर सरिफ आदमी को मूजरिम बनाने का काम पूलिस खूले आम कर रही है  कूछ कहा सूनी होने पर किसी भी यूवा को इस कदर प्रताडीत करती है वो अपराधी बन जाता है  आज  पुलिस खुद लूटेरी बन गयी है, आज पुलिस खुद अपराधी बन गयी है, आज पुलिस खुद उगाही खोर बन गयी है, आज पुलिस खुद पैसे के लिए निर्दोष आदमी को झूठे मुकदमों में फसा कर अपराधी बना डालती है।  आज  आम आदमी को पुलिस के सामने खड़ा होने पर डर लगता है, थाने में जाना तो और भी डरावना अनुभव होता है। सूचना क्रांति की इस विस्फोटक दौर में भी पुलिसकर्मियों का बर्बर और लोमहर्षक चरित्र में सुधार न होना चिंता की ही बात नहीं है बल्कि सभ्य समाज के लिए खतरनाक है, 

वैसे लोगों के लिए तो और भी खतरनाक है जो कानून में विश्वास रखते हैं। सिर्फ कास्टेबलों की ही बात ही नहीं बल्कि पुलिस के बडे-बडे अधिकारियों का भी रवैया कास्टेबलों जैसा ही होता है  यकिन नही होता तो कभी मामूली आदमी  बनकर जाकर देखो  पूलिस स्टेशन मे इनकी हकीकत सामने आ जायेगी  मोदी सरकार अपने गूप्तचर भेजकर तो देखे एक बार  बडे शहरों में तो पुलिस थोड़ी डरती भी है पर ग्रामीण क्षेत्रों में पुलिस तो और भी खतरनाक, और भी बर्बर और भी लोमहर्षक हो जाती है। विवादित जमीन, विवादित घर पर कब्जा जमाने से लेकर अपहरण  तक कर वसूली कराती है , पुलिस  गून्डो से मिलकर वारदात मे पूरी भाग्यदारी  निभाती है पूलिस  अगर गून्डे कह दे दो घन्टे तक पूलिस नही आनी  चाहिए तो दो घन्टे आपके पास नही पहूचेगी पूलिस  ,,पूलिस के लिए ये कोई नयी बात नहीं है या आश्चर्य की बात नहीं है। हरियाना मे तो शक पर ही लोगो को उठा कर सीआईए हाथ पैर तोड देती है पूलिस चाहे कोई बेगूनाह ही क्यो ना साबित हो बाद मे , पुलिस सुधार के लिए सुप्रीम कोर्ट में लंबी सुनवाई हुई है, सुप्रीम कोर्ट ने भी राज्य सरकारों को कुछ निर्देश दिये हैं पर केन्द्रीय और राज्य सरकारों ने पुलिस सुधार के दिशा में कोई ऐसा  ठोस कदम नहीं उठाये हैं जिससे पुलिस को और जिम्मेदार, जवाबदेह बनाया जा सके सरकार के अधीन आने वाली इस बँाडी , इन पर लगाम लग सके । पुलिस को बैज्ञानिक और स्मार्ट बनाना जरूरी है, इसलिए कि पुलिस के उपर न केवल स्थानीय सुरक्षा  स्थानीय   लोगो  की जिम्मेदारी है बल्कि कई ऐसी वाह्य चुनौतियां हैं जिससे निपटने के लिए अतिरिक्त दक्षता की जरूरत है, टेक्नोलॉजी के विकास के साथ ही साथ पुलिस के सामने अतिरिक्त जिम्मेदारियां खडी हो गयी हैं।

पुलिस की अराजकता, पुलिस की बर्बरता और पुलिस की लोमहर्षक घटनाएं और मानसिकताएं भी संरक्षित होती हैं। यह संरक्षण राजनीतिक तौर पर होता है, प्रशासनिक तौर पर होता है और यूनियनबाजी के तौर पर भी होता है। लखनउ  के विवेक तिवारी हत्याकांड को ही देख लीजिये। प्रथम दृष्टि में ही यह प्रकरण हत्याकांड है, एनकाउंटर कतई नहीं है। पुलिस कास्टेबलों की गलती थी, नशाखोरी और उगाहीखोरी भी कारण बनी होगी। यह सही है कि विवेक तिवारी अपनी युवा महिला मित्र के साथ गाडी में था और  एक बार मान भी लिया जाएे वह एय्याशी भी कर रहा होगा। फिर भी उसे जीने का अधिकार था। पुलिस वालों को गोली मारने का अधिकार नहीं था। अगर यह बात भी मान ली जाये कि विवेक तिवारी ने कार नहीं रोकी थी और कार उन लोगों पर चढाने की कोशिश की थी फिर भी पुलिस वालों को उस के   सिर में गोली नही मारनी चाहीए थी 1  सर मे गोली  क्यों मारनी चाहिए  थी, ???? एेसा अनेको बार कई राज्यो मे हूआ है

कार रोकने या फिर विवेक तिवारी को नियंत्रण में लेने के लिए और भी  कई तरीके थे, जैसे कार की पहिये में गोली मारना आदि  आम तौर पर पुलिस किसी अपराधी को नियंत्रण में लेने के लिए सिर में गोली नहीं मारती है बल्कि पैर में मारती है। पुलिस प्रशिक्षण में यह सीखाया भी जाता है। सबसे बडी बात शैडो कमान्डो  को पिस्टल मिलती है इसके लिए टनिग दी जाती है  पर पुलिस प्रशिक्षण की बातें वहां पर निरर्थक हो जाती है जहां पर कोई वाद, कोई लालच, कोई नशाखोरी, कोई उगाहीखोरी वाले हथकंडे सामने आ जाते हैं।

अब तो पुलिस व्यवस्था भी यूनियनबाजी से मुक्त नहीं है। पुलिस यूनियनबाजी पर उतर आती है। विवेक तिवारी हत्याकांड पर भी यूनियन बाजी हुई। इस यूनियनबाजी में आईपीएस रैंक के अधिकारी भी शामिल हुए। दोषी पुलिसकर्मियों को बचाने के लिए पूरी कहानी प्रत्यारोपित करायी गयी। एनकांउटर की कहानी गढी गयी।

देश के अंदर खतरनाक तौर पर यूनियनबाजी बढी है। डॉक्टर समूह पर कार्रवाई करो तो फिर पूरा डॉक्टर समूह हडताल पर चला जाता है, कर्मचारियों और प्रशासनिक अधिकारियों पर कार्रवाई करो तो फिर कर्मचारी और प्रशासनिक अधिकारियों की यूनियन हडताल पर चली जाती है। अब तो पुलिस व्यवस्था भी यूनियनबाजी से मुक्त नहीं है। पुलिस यूनियनबाजी पर उतर आती है। विवेक तिवारी हत्याकांड पर भी यूनियन बाजी हुई। इस यूनियनबाजी में आईपीएस रैंक के अधिकारी भी शामिल हुए। दोषी पुलिसकर्मियों को बचाने के लिए पूरी कहानी प्रत्यारोपित करायी गयी। एनकांउटर की कहानी गढी गयी। प्राथमिकी में भी यह बात डाल दी गयी कि पुलिसकर्मियों के उपर गाडी चढाने की कोशिश हुई और एनकाउंटर में विवेक तिवारी मारा गया। यानी कि दोषी पुलिसकर्मियों के साथ पुलिस अधिकारी भी खडे हो गये। जब हंगामा मचा तब पुलिस अधिकारियों के होश उडे। फिर पुलिस अधिकारियों ने दोषी पुलिसकर्मियों से बयान दिलवाये कि आत्म रक्षार्थ गोली चलायी थी। अगर पुलिस अधिकारी दोषी पुलिसकर्मियों को बचाने की कोशिश नहीं करते तो फिर इतना हंगामा भी नहीं मचता और न ही पुलिस की इतनी आलोचना होती और न ही पुलिस की इतनी छवि खराब होती? आईपीएस स्तर के अधिकारी ही जब पुलिस कर्मियों के दोष पर पर्दा डालने के लिए तत्पर हो जाते हैं और प्रत्यारोपित कहानियां गढ देते हैं तो फिर बर्बर, अराजक और हिंसक पुलिसकर्मियों को नियंत्रण में कौन ला सकता है, कैसे लाया जा सकता है, सरकार तो सिर्फ नीतियां बनाती है, लागू करने का काम तो अधिकारी को ही करना होता है? हर जगह पुलिस की वसूली देखी जाती है पर पुलिस अधिकारी इस पर रोक लगाने की जगह संरक्षण देते नजर आते हैं।

बडे लोकतांत्रिक देश की पुलिस इतनी अलोकतांत्रिक? सिर्फ अलोकतांत्रिक ही क्यों? बल्कि बर्बर, हिंसक और खतरनाक भी है। आम जनता पुलिस से थर-थर कापंती है। आम जनता पुलिस के सामने जाने मात्र से डरती है। पूलिस मित्र कैसे ?

सभ्य देश में सभ्य पुलिसकर्मी की कल्पना होती है। खासकर अमेरिका और यूरोप की पुलिस कई अर्थो में सभ्य है, कई अर्थो में वैज्ञानिक है, कई अर्थो में टेक्नोलॉजी की सहचर बन चुकी है। भारत दुनिया का सबसे बडा लोकतांत्रिक देश है, भारत अपने आप को विश्व की बडी शक्तियां में देखने की कोशिश कर रहा है। नरेन्द्र मोदी भारत को दुनिया की बडी शक्तियों के सामने खडा करने की कोशिश कर रहे हैं। पर क्या ऐसी पुलिस व्यवस्था हमारे लिए एक कलंक नहीं है? जो देश दुनिया का सबसे बडा लोकतांत्रिक देश है उस बडे लोकतांत्रिक देश की पुलिस इतनी अलोकतांत्रिक? सिर्फ अलोकतांत्रिक ही क्यों? बल्कि बर्बर, हिंसक और खतरनाक भी है। आम जनता पुलिस से थर-थर कापंती है। आम जनता पुलिस के सामने जाने मात्र से डरती है। अमेरिका और यूरोप की पुलिस अपराध के तह तक पहुंच जाती है, अपराधी पकड़ से छूट नहीं सकता है, निर्दोष को प्रताड़ित करने वालों का गर्दन कानून पकड लेती है। पर भारत में उल्टा होता है। यहां की पुलिस निर्दोष लोगों को न्याय दिलाने की जगह अपराधियों की सहचर बन जाती है, पुलिस खुद लुटेरी बन जाती है, पुलिस खुद अपराधी बन कर अपराध करती है, बडे अपराधों को ढकने के लिए और जन आलोचना के शिकार बनने से बचने के लिए निर्दोष लोगों की गर्दन ही नाप देती है। देश के अंदर में आतंरिक सुरक्षा के साथ ही साथ वाह्य सुरक्षा भी एक बडा प्रश्न है। ऐसे तो वाह्य सुरक्षा के लिए सेना और अर्द्धसैनिक बल हैं पर पुलिस की भी भूमिका बडी होती है। वाह्य शक्तियां और वाह्य शत्रू देश की आतंरिक सुरक्षा को दग्ध बनाने की हमेशा कोशिश में लगे रहते रहते हैं। नक्सल और आतंकवाद दो बडी सुरक्षा चुनौतियां हैं। अगर पुलिस हमारी इसी तरह अराजक और अनियंत्रित होकर अपराध कर्म के सहचर बन जायेंगी तो फिर नक्सल और आतंकवाद जैसी खतरनाक चुनौतियों से कैसे निपटा जा सकता है?

 व्यवस्था में सुधार के लिए 1977 में राष्ट्रीय पुलिस आयोग का गठन किया गया था,, पूलिस का राजनितिकरन  पुलिस का जमकर दुरूपयोग

पुलिस व्यवस्था में सुधार के लिए 1977 में राष्ट्रीय पुलिस आयोग का गठन किया गया था। खासकर आपातकाल में पुलिस का राजनीतिक करण हुआ था, इन्दिरा गांधी ने आपातकाल के दौरान पुलिस का जमकर दुरूपयोग किया था, पुलिस बेगुनाहों की जान ली थी, बेगुनाहों को प्रताड़ित किया था। पर जनता पार्टी के पतन के साथ ही साथ राष्ट्रीय पुलिस आयोग भी सिर्फ खानापूर्ति का माध्यम बन गया। पुलिस को राजनीति और प्रशासनिक दबावों से मुक्त कराने की बात सुप्रीम कोर्ट तक पहुंची है और पुलिस को किसी नियामक से नियंत्रित करने की मांग उठी है। पर ध्यान यह दिया जाना चाहिए कि आज तक देश में जितने भी नियामक है वे सभी हाथी के दांत साबित हुए हैं, कागजी शेर साबित हुए हैं। नियामक भी स्वतंत्रता का दुरूपयोग कर तानाशाह बन जाते हैं। सरकारें भी कुछ ज्यादा कर नहीं पाती हैं। ईमानदार सरकार कुछ करती भी है तो फिर कोर्ट सामने खडा हो जाती है। दोषी को सजा देना कोर्ट का काम है। कोर्ट भी अन्य संस्थाओं की तरह पूरी तरह से जवाबदेह नहीं है। अपराधी कोर्ट में भी पैसा और पहुच के बल पर कोर्ट से राहत ले लेता हैं। सरकार एक काम आसानी से कर सकती है। वह काम है जन शिकायतों की सुनवाई। अगर सरकार जन शिकायतों पर सुनवाई करने की ईमानदार व्यवस्था सुनिश्चित कर दे तो फिर लालची, हिंसक, उगाहीखोर पुलिसकर्मी ही नहीं बल्कि पूरी नौकरशाही भी सुधर सकती है।

 

 

 

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